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अरे बाबा, सरकारी डॉक्टर मत बनो…!!!

स्वास्थ्य व्यवस्था की चुनौतियाँ और सरकारी डॉक्टरों पर घटता भरोसा
प्रकाशित तिथि : 28 अगस्त 2025

पिछले समय में सरकारी डॉक्टरों और सरकारी अस्पतालों पर लोगों का भरोसा कम होता दिखाई देता है। इसी तरह डॉक्टर ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी नौकरी करने के लिए भी तैयार नहीं होते। अब तक न प्रशासन और न ही किसी भी दल की सरकार ने इस पर ध्यान दिया है। सरकारी डॉक्टर कितने महत्वपूर्ण हैं—और सरकारी स्वास्थ्य केंद्र, ग्रामीण अस्पताल तथा शासकीय मेडिकल कॉलेजों का महत्त्व—यह पहली बार सबको कोरोना काल में स्पष्ट हुआ। कुछ वर्ष पहले स्थिति ऐसी नहीं थी; लगभग 20 वर्ष पहले तक जनसामान्य का सरकारी अस्पतालों और सरकारी डॉक्टरों पर पूरा विश्वास था।

प्रसिद्ध मेडिकल कॉलेजों के विशेषज्ञ डॉक्टर अपने-अपने जिलों में आकर सरकारी अस्पतालों में सेवा शुरू कर देते थे। वे पूरे जिले/तालुके/गाँव के लिए पूर्णतः समर्पित रहते। अनेक डॉक्टर शाम को अपने घर पर भी मरीज़ देखते। कई जगह गाँव के बुज़ुर्ग उन्हें फुर्सत में छोटा निजी क्लिनिक चलाने के लिए जगह दे देते। फलतः अधिकांश चिकित्सा अधिकारी मुख्यालय में रहते और 24×7 सेवा देते। हर स्तर पर MO उपलब्ध रहते और जनता में उनका गहरा विश्वास था। कई स्थानों पर दूसरे जिलों से आए MO जहाँ नियुक्त हुए वहीं स्थायी हो गए। चिकित्सा पेशे के सम्मान के कारण स्थानीय प्रतिनिधि और ग्रामीण लोग भोजन व रहने की जगह तक उपलब्ध कराते थे।

सरकारी मेडिकल कॉलेजों में प्रायः आर्थिक रूप से कमज़ोर पृष्ठभूमि के विद्यार्थी MBBS करते थे; इसलिए डॉक्टर बनने के बाद उनकी अपेक्षाएँ भी साधारण रहतीं। उस समय निजी क्लिनिक भी कम थे, इसलिए महाराष्ट्र की सरकारी स्वास्थ्य-व्यवस्था बहुत अच्छी और सक्षम थी; हम समय-समय पर आने वाली महामारियों से निपट पाते थे। पर निजी मेडिकल कॉलेज बढ़े; MBBS/MD के लिए लाखों-करोड़ों की कैपिटेशन फीस बढ़ी; ऐसे कॉलेजों से निकले डॉक्टरों के लिए सरकारी तंत्र में आने से बेहतर अपना निजी क्लिनिक खोलकर अधिक लाभ कमाना आसान हो गया। कॉरपोरेट क्षेत्र ने मल्टी-स्पेशलिटी अस्पताल भी खड़े किए, जिनमें गैर-डॉक्टर व्यवसायियों ने निवेश किया और जनता को आकर्षित किया। धीरे-धीरे सरकारी डॉक्टरों को भी इन अस्पतालों में सरकारी वेतन से दुगुना-तिगुना देकर रख लिया गया। नतीजतन, जो सेवाएँ पहले सरकारी तंत्र में मुफ्त मिलती थीं, उनके लिए आम लोगों को पैसे देने पड़े।

लगभग 15–20 वर्षों से सरकारी तंत्र में डॉक्टरों की घटती संख्या पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया? इस गंभीर विषय का जिम्मेदार कौन? वैश्विक महामारी के समय सरकारी व्यवस्था में डॉक्टर बहुत कम थे— इसकी जिम्मेदारी किसकी? सरकार की नीतियाँ स्वास्थ्य क्षेत्र की ओर कम क्यों रहीं? शायद 2020 की महामारी न आती तो किसी को भान न होता कि सरकारी डॉक्टरों की भारी कमी है।

कठिनाइयाँ और समस्याएँ असंख्य हैं, पर मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि डॉक्टर सरकारी तंत्र में क्यों नहीं आ रहे।

  1. चिकित्सा अधिकारियों का बहुत कम वेतन। सातवें वेतन आयोग के बाद भी नए नियुक्त MO को केवल ₹65,000–₹69,000 मिलते हैं, वह भी अक्सर नियमित नहीं। जिलों के दफ्तरों में भ्रष्ट/उत्पीड़क लिपिक वर्ग नए MOs का सहयोग नहीं करता; प्रताड़ना से तंग आकर लगभग 30–40% नौकरी छोड़ देते हैं—किसी से मदद/सांत्वना नहीं मिलती। निजी क्षेत्र में MBBS डॉक्टर ₹2,00,000 से अधिक कमा सकते हैं, जबकि MOs को निजी प्रैक्टिस निषेध भत्ता मात्र ~₹8,000 मिलता है (शासन-निर्णय अनुसार यह मूल वेतन का 33% होना चाहिए)। MO का पद ग्रुप-A है, फिर भी परिवीक्षा वर्षों तक खत्म नहीं होती; 5 से 15 वर्षों तक मूल वेतन पर ही अटके रहते, नियमित वृद्धियाँ नहीं मिलतीं। कोई निर्णय न होने से नई पीढ़ी जुड़ने से कतराती है। अन्य भत्ते भी तभी मिलते हैं जब ‘बाबू’ फाइलें चलाएँ (यानी जेबें गरम करनी पड़ती हैं)।
  2. निश्चित कार्य-समय नहीं (8 घंटे होने चाहिए)। गाँव में PHC सेवाओं और डॉक्टर के नाम पर राजनीति चलती है; नए MOs इसे अक्सर झेलते हैं। स्थानीय पदाधिकारियों के विवाद ज़िला परिषद/पंचायत समिति से सुलझने चाहिए, पर अपेक्षा रहती है कि सब कुछ MO ही सुलझाएँ—जैसा कहा जाए वैसा इलाज करें, निर्देशानुसार प्रमाणपत्र दें, बताए गए मरीज़ों को रेफर करें, जिनके लिए कहा जाए उनके सामान्य प्रसव करें, और पसंदीदा कर्मचारियों को काम न दें। ऐसे माहौल में MO को समझ नहीं आता कि क्या करे; सीधी बात कह देने पर शिकायतें, तबादले। नतीजतन कई PHC बिना डॉक्टर के चलती हैं। संगठन ने बार-बार मुद्दा उठाया, पर कार्य-घंटे आज भी तय नहीं हैं। PHC स्तर पर अक्सर एक ही MO (कभी-कभी एक भी नहीं) होता है, इसलिए OPD और फील्ड विज़िट के बाद काम खत्म होने का समय तय नहीं। यदि 24×7 सेवा चाहिए, तो हर PHC पर कम से कम 3 डॉक्टर हों और फील्ड कार्य हेतु अलग डॉक्टर हो। इसके उलट, जो MO ईमानदारी से HQ में रहता है, उसे निजी काम के लिए छुट्टी तक नहीं मिलती; स्थानीय अपेक्षाएँ उसी एक डॉक्टर से बढ़ती जाती हैं। कभी वह उपलब्ध न हो, तो शिकायतें करके तबादला—और वह पद वर्षों खाली, सीधा नुकसान गरीबों को।
  3. जॉइनिंग से पहले कोई प्रशासनिक प्रशिक्षण नहीं। IAS को भी पास होने के बाद लगभग एक वर्ष का प्रशासनिक प्रशिक्षण मिलता है; अन्य विभाग भी प्रशिक्षण देते हैं। पर MBBS के तुरंत बाद MO को PHC का राजपत्रित अधिकारी बनाकर पूर्ण वित्तीय/प्रशासनिक दायित्व दे दिए जाते हैं। शून्य अनुभव में दो-एक न्यायिक मामले या RTI आ जाएँ तो वे नौकरी छोड़ देते हैं—क्योंकि जानकारी नहीं और वरिष्ठों से मार्गदर्शन नहीं। रोगी-सेवा व राष्ट्रीय कार्यक्रम सँभालते हुए ऐसे अप्रशिक्षित MOs को वित्तीय/प्रशासनिक प्रशिक्षण क्यों नहीं? अब तक कोई निर्णय नहीं।
  4. ‘मुख्यालय में रहना’—लटकती तलवार। नियुक्ति-आदेशों में सभी विभागों के लिए HQ से सेवा देने का उल्लेख है, फिर भी तलाठी, ग्रामसेवक, शिक्षक, यहाँ तक कि तालुका-स्तरीय वरिष्ठ अधिकारी भी HQ में नहीं रहते। केवल MOs से 24×7 HQ में रहने का कठोर नियम क्यों? क्यों अपेक्षा है कि MBBS डॉक्टर गाँव में ही रहे? गाँव के स्थायी लोग भी बच्चों की पढ़ाई हेतु शहर में रहते—तो MOs के HQ में न रहने की शिकायत क्यों? क्या अन्य अधिकारी भी गाँव-स्तर के कार्यों के लिए उपस्थित नहीं होने चाहिए? ऐसी शिकायतों के डर से नए डॉक्टर गाँव आने से हिचकते हैं।
  5. स्थानीय गाँव-राजनीति। गाँव में PHC सेवाओं और डॉक्टर के नाम पर राजनीति होती है; नए MOs इसे बार-बार झेलते हैं। स्थानीय नेताओं के विवाद ज़िला परिषद/पंचायत समिति से सुलझने चाहिए, पर अपेक्षा रहती है कि हर समस्या MO ही सुलझाए—जैसा कहा जाए वैसा इलाज, प्रमाणपत्र, रेफरल, बताए गए मरीज़ों की सामान्य डिलीवरी, और पसंदीदा कर्मियों को काम न देना। नतीजा: कई PHC बिना डॉक्टर के, और सीधा नुकसान गरीब ग्रामीणों को।

सरकारी तंत्र में आने वाले MOs अक्सर परिस्थितिवश आते हैं—वे सामान्यतः गरीबी से पढ़े-लिखे डॉक्टर होते हैं; पूर्व अनुभव नहीं होता, इसलिए उन्हें समझना आवश्यक है। एक-दो वर्ष में वे स्थानीय समाज और स्वास्थ्य-तंत्र समझ लेते हैं। यदि लोग और सरकार प्रारंभिक 2–3 वर्षों में ऊपर बताई दिक्कतें सुलझा दें, तो रिक्त पद शीघ्र भरेंगे। सभी MOs हर तरह से परिपूर्ण नहीं होते, पर यदि सरकार इन सरल, बुनियादी समस्याओं को तत्परता और प्राथमिकता से सुलझाए, तो हमारी स्वास्थ्य-व्यवस्था फिर से सक्षम हो जाएगी। कम से कम इस कोरोना काल में तो सरकार को इस गंभीर विषय को समझकर समाधान करना चाहिए—वरना ये प्रश्न कभी हल नहीं होंगे।

एक कविता उन सभी डॉक्टरों और उनके अधीनस्थों को समर्पित है जिन्होंने कोविड के दौरान काम किया। वे अपने परिवार को भूलकर, संसार को बचाने के लिए निस्वार्थ भाव से काम कर रहे हैं। आपके कार्य को सलाम।

...बायको..... मला थोड तरी सिरीयसली घेत जा !

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प्रेम करतोस माझ्यावर, मला पण करू देत जा...

प्रेम करतोस माझ्यावर, मला पण करू देत जा...||

...बायको .....मला थोड तरी सिरीयसली घेत जा..!!

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बाहेर कामावर जातांना सर्व तयारी करून पाठविते...

जणू काही शाळेत जाताना आई करायची तेच आठवते...||

माझे काम मला कधी तरी करू देत जा...

...बायको .....मला थोड तरी सिरीयसली घेत जा..!!

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ओ.पी.डी. ला असताना पण ,मेसेज करून काही विसरले हे सांगते...

आता परत येणार कसे ? हे उत्तर देखील तूम सांगते...||

जमलं..तर तू पण ओ.पी.डी. ला सोबतच येत जा...

...बायको .....मला थोड तरी सिरीयसली घेत जा..!!

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तू पण डॉक्टर मी पण डॉक्टर,पॅशंट चे TREATMENT मात्र मलाach विचारते...

मी सांगितल्यावर...हे तर मला आधीच माहित होत असं सांगते...||

माझा इलाज मात्र तूच करत जा...

...बायको .....मला थोड तरी सिरीयसली घेत जा..!!

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मी मोठा तू लहान ,तरी तुलचबर असते...

म्हणूनच लोकं म्हणतात,जसं दिसते तसंच नसते...||

माझे बरंच नसले तरी निदान ऐकून तरी घेत जा...

...बायको .....मला थोड तरी सिरीयसली घेत जा..!!

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असे मित्र नकोत,मैत्रिणी तर बिलकुल नसाव्यात...

मित्र-मैत्रिणी नाही ना, फक्त आठवणीत तरी असाव्यात...||

नाईट मधली थर्टी तू पण कधी भेट जा...

...बायको .....मला थोड तरी सिरीयसली घेत जा..!!

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अश्रिंच रहा मैत्रिणी सारखी,सर्व सुख:दुख:त आयुष्यमर..

हे जग देखील वाटते लहान,तुझ्यास त्या हसऱया गालासमोर...||

नेहमी मला तसाथ अश्रिंच देत जा...

...बायको .....मला थोड तरी सिरीयसली घेत जा..!!

लेखक -

डॉ. संघर्ष अनुसया सदाशिव राठोड़

चिकित्सा अधिकारी एवं सचिव, MAGMO संघ, यवतमाल
मो. नं. 9503343579
संकलन -

डॉ. नरेंद्र कौशल्या शेषराव डोमके

अध्यक्ष, प्रसिद्धि प्रकोष्ठ, मॅग्मो महाराष्ट्र

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