हर सशक्त संस्था के इतिहास में कुछ असाधारण व्यक्तित्व होते हैं, जिनकी दूरदृष्टि, साहस और दृढ़ निश्चय आने वाली पीढ़ियों की नींव रखते हैं। महाराष्ट्र राज्य राजपत्रित चिकित्सा अधिकारी (ग्रुप A) संघ — मॅग्मो — के लिए वह व्यक्तित्व थीं डॉ. सुजाता ढवले।
व्यवसाय से डॉक्टर, स्वभाव से नेत्री और हृदय से सुधारक रहीं डॉ. ढवले ने सरकारी चिकित्सा अधिकारियों की बिखरी हुई आवाज़ों को एकजुट कर एक आंदोलन का रूप दिया। जब पूरे महाराष्ट्र में अधिकारी सामूहिक प्रतिनिधित्व से वंचित थे, तब उन्होंने उन्हें पहचान, सम्मान और एक मज़बूत मंच दिलाया।
मॅग्मो की कहानी 20वीं सदी के मध्य से शुरू होती है। महाराष्ट्र के ग्रामीण दवाखानों, तालुका अस्पतालों और शहरी स्वास्थ्य केंद्रों में कार्यरत सरकारी चिकित्सा अधिकारी निस्वार्थ सेवा कर रहे थे। बावजूद इसके, उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था:
1960-70 के दशक में डॉक्टरों का संगठन बनाने की कोशिश हुई, परंतु टिक नहीं पाया। 1980 के शुरुआती वर्षों में महाराष्ट्र बिना किसी एकीकृत संगठन के रह गया।
इसी शून्य में डॉ. सुजाता ढवले एक निडर और करिश्माई नेतृत्त्व के रूप में सामने आईं। अपने ओजस्वी भाषण, संगठन कौशल और अटूट प्रतिबद्धता के लिए जानी जाने वाली डॉ. ढवले ने पूरे महाराष्ट्र का दौरा किया, डॉक्टरों से मिलीं और उन्हें एकजुट किया।
इस अभियान में उनके साथ डॉ. डी.डी. शिंदे जुड़े और दोनों ने ज़िले-ज़िले घूमकर समर्थन जुटाया। उनके अथक प्रयासों से चिकित्सा अधिकारियों के संगठन की पुनर्स्थापना हुई, इस बार और अधिक दृढ़ संकल्प और व्यापक सहभागिता के साथ।
उनके प्रयासों से 1980 के दशक में औरंगाबाद और नागपुर में संगठन के पहले अधिवेशन हुए। सैकड़ों अधिकारी पहली बार एक संगठित शक्ति के रूप में साथ आए।
इन अधिवेशनों से दो महत्वपूर्ण परिणाम निकले:
इस प्रकार मॅग्मो का जन्म हुआ — महाराष्ट्र राज्य राजपत्रित चिकित्सा अधिकारी (ग्रुप A) संघ — जिसकी संस्थापक अध्यक्षा बनीं डॉ. सुजाता ढवले।
डॉ. सुजाता ढवले का नेतृत्त्व मॅग्मो तक ही सीमित नहीं था। उन्होंने चिकित्सा और सामाजिक क्षेत्र की अनेक संस्थाओं में सक्रिय योगदान दिया। उनके कुछ प्रमुख योगदान इस प्रकार हैं:
उनका बहुआयामी नेतृत्त्व उन्हें न केवल चिकित्सा जगत में, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में भी सम्मानित करता है। 1995 में उन्होंने मुंबई से महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार के रूप में लड़ा। यद्यपि उन्हें विजय नहीं मिली, लेकिन उनकी भागीदारी ही उनके साहस और जनसेवा के संकल्प को दर्शाती है।
डॉ. ढवले का जीवन मंत्र था: “हार मानने वाले कभी जीतते नहीं, और जीतने वाले कभी हार नहीं मानते।”
उनका सम्पूर्ण जीवन संघर्ष से भरा था। हर बाधा का सामना कर वे आगे बढ़ती रहीं। उनके अटूट संकल्प ने चिकित्सा अधिकारियों की एक पीढ़ी को यह विश्वास दिलाया कि एकता से परिवर्तन संभव है।
डॉ. सुजाता ढवले का निधन हो गया, लेकिन उनका प्रभाव आज भी जीवित है। वे केवल संस्थापक नहीं थीं, बल्कि शक्ति, त्याग और दूरदृष्टि का प्रतीक थीं। 1980 के दशक में उनका संघर्ष आज के सशक्त मॅग्मो की नींव साबित हुआ।
सेवा शर्तों में सुधार और अधिकारियों को न्याय दिलाने के लिए मॅग्मो के निरंतर प्रयास उनकी ही नींव से शुरू हुए।
मॅग्मो का इतिहास डॉ. सुजाता ढवले के जीवन से अलग नहीं किया जा सकता। उन्होंने संगठन को पहचान, आवाज़ और संघर्ष की प्रेरणा दी। आज जब मॅग्मो आगे बढ़ रहा है, यह उनकी दूरदृष्टि का जीवंत स्मारक है।
उनके स्मरण से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सच्चा नेतृत्त्व पद या अधिकार से नहीं, बल्कि साहस, दृढ़ता और सेवा भाव से बनता है।